मुझको आवाज में उसकी कोई गर बुला लेता।।
में अपने उसूलों कि किताबे भी जला देता।
मुझे उन अजनबी लोगों से कोई तकलीफ़ ही ना थी।
वो दोस्तों की तरह ना सही दुश्मनी ही निभा लेता।।
कब मेने उसको अपनी मलकीयत जताई थी।
भले वो गैर की बाहों में था तो मेरा क्या चला जाता ।
हमने तो बस मुहब्बत की उसे अपना जान कर।।
जो उसको था पसंद में भी उसको अपना बना लेता।।
अरे जब उसकी खुशी में उसकी एक रजा नहीं तोड़ी?
क्या हिम्मत थी हमारी उसकी बात से आगे चला जाता।
जुदा होने में और बिछड़ने में बस फर्क है इतना,
वो कह देते प्यार से सागर और में महफ़िल से चला जाता ।।
मेरे विचारों की,दिल के अरमानो की,सपनो की जो अठखेलियाँ करते आ जाते है,कभी मेरी आँखों में,और टपक पड़ते है कभी आंसू बनकर,कभी खिल जाते है फूल बनकर मेरे दिल के आँगन में,कभी होठों पे मुस्कराहट बन के आ जाते है,कभी बन जाती है आवाज मेरी जब हो जाता हूँ में बेआवाज ,तब होती है इन शब्दों के समूहों से अभिव्यक्ति;अपनी भावनाओ को,अपने दिल के अरमानो को लिख कर;प्रस्तुत किया इक किताब कि तरह,हर उन लम्हों को जो है मेरी अभिव्यक्ति,अगर ये आपके दिल को जरा सा भी छू पाए तो मेरा लेखन सार्थक हो जायेगा...
2019/10/10
मोहब्बत की मलकियत
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